एकोदिष्ट श्राद्ध क्या है? एकोदिष्ट श्राद्ध में केवल एक पितर की मुक्ति के लिए श्राद्ध किया जाता है। इसमें एक पिंड का दान और ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है। हिन्दू धर्म के अनुसार, प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ पहले माता-पिता, पूर्वजों और पितरों को नमस्कार या प्रणाम करना चाहिये हमारा कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज सुखी जीवन जी रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं।
एकोद्दिष्ट श्राद्ध से पूर्व दाह संस्कार विधि
अस्थि संचयन के पहले तीन श्राद्ध बताये गये हैं। जिस स्थान पर मृत्यु हुयी हो, वहाँ एक श्राद्ध करें। फिर मार्ग में जहाँ विश्राम कराया गया हो, वहाँ एक श्राद्ध करना चाहिये। तत्पश्चात् अस्थि संचयन के स्थान पर तृतीय श्राद्ध करना उचित है। इसके सिवा मृत्यु के प्रथम, तृतीय, पंचम, सप्तम, नवम तथा ग्यारहवें दिन भी एक-एक श्राद्ध किया जाता है। इस प्रकार सब मिलकर नौ श्राद्ध होते हैं। वैतरणी-दान की प्राप्ति होने पर प्रेत तृप्त होता है। तो आइये जानते हैं कि एकोद्दिष्ट श्राद्ध क्या है ? कैसे करें
एकोद्दिष्ट श्राद्ध क्या है ? कैसे करें What-Is-Ekodisht |
एकोद्दिष्ट श्राद्ध कैसे करना चहिये
एकोद्दिष्ट श्राद्ध विश्वेदेव से रहित होता है। उसमें अग्नि करण की क्रिया भी नहीं की जाती। एकोद्दिष्ट बिना आवाहन के ही करना चाहिये। एक बार 'तृप्तोऽसि ? स्वदितम् ?' 'क्या आप तृप्त हो गये? भोजन स्वादिष्ट लगा है न ?' इत्यादि रूप से तृप्ति विषयक प्रश्न करना चाहिये।
एकोद्दिष्ट श्राद्ध में अभिरम्यताम् का प्रयोग
फिर एकोद्दिष्ट में 'अभिरम्यताम्' कहकर ब्राह्मण का विसर्जन करना चाहिये। जिसका अग्रभाग कटा या फटा न हो,ऐसे कुश-पत्र को बीच से काटकर दो तृण के रूप में कर ले और उसी को पवित्री बनावे। एकोद्दिष्ट में ऐसी ही पवित्री बनाने का विधान है।
आसन आदि के अर्पण करते समय सर्वत्र 'पितः' इस प्रकार सम्बोधनान्त उच्चारण करना चाहिये। तर्पण में 'पिता' (तृप्यताम्) का (पितृ शब्द के प्रथमान्त रूप का) प्रयोग करना चाहिये। संकल्प-वाक्य में 'पित्रे' (इस प्रकार चतुर्थ्यन्त रूप) का उच्चारण करना चाहिये और अक्षय्योदक दिलाते समय 'पितुः' इस षष्ठयन्त रूप का प्रयोग करना उचित है।
एकोद्दिष्ट में पितः,गोत्राय, गोत्रस्य,शर्मणः कब
एकोद्दिष्ट श्राद्ध में पितः,गोत्राय,गोत्रस्य,शर्मणः कब। जहाँ ‘पितः' का प्रयोग होता है, ऐसे स्थलों में सर्वत्र 'अमुक गोत्र' इस प्रकार स्वरान्त (सम्बोधनान्त) उच्चारण करना चाहिये। तर्पण में 'गोत्र: 'का, संकल्प वाक्य में 'गोत्राय' का और अक्षय्य वाक्य में 'गोत्रस्य' का उच्चारण उचित है। ऐसे ही अर्ध्य आदि देते समय 'अमुक गोत्र' के साथ 'अमुक शर्मन्' का प्रयोग करना चाहिये। तर्पण में शर्मा, संकल्प वाक्य में 'शर्मणे' और अक्षय्योदक त्याग के समय 'शर्मणः' का प्रयोग उचित है।
एकोद्दिष्ट श्राद्ध में मातः, माता, मात्रे और मातुः का प्रयोग कब करे
एकोद्दिष्ट श्राद्ध मातः, में इसी प्रकार माता के लिये क्रमश: आसन, तर्पण, संकल्प एवं अक्षय्य वाक्य आदि के समय एकोद्दिष्ट श्राद्ध में मातः,माता मात्रे और मातुः का प्रयोग आवश्यक है। उसके साथ गोत्र का विशेषण लगाने पर 'अमुक गोत्रे गोत्रा' 'गोत्रायै' तथा गोत्रायाः ' का प्रयोग चाहिये। माताओं के नाम के साथ देवी का प्रयोग करना हो तो उक्त स्थलों में क्रमशः देवि 'देवी''देव्यै' और 'देव्याः ' का प्रयोग करना चाहिये।
एकोद्दिष्ट श्राद्ध प्रथमा, चतुर्थी और षष्ठी विभक्ति क्यों
इस तरह यथास्थान प्रथमा आदि विभक्तियों का प्रयोग होता है। एकोद्दिष्ट श्राद्ध प्रथमा, चतुर्थी और षष्ठी विभक्ति का यथावत् प्रयोग श्राद्ध की सिद्धि के लिये आवश्यक है। जो श्राद्ध विभक्ति का ठीक प्रयोग किये बिना ही किया जाता है, वह नहीं किये हुये के समान है; पितरों को उसकी प्राप्ति नहीं होती। अतः विश्वे ब्राह्मण को प्रयत्नपूर्वक यथोक्त विभक्तियों के प्रयोग के साथ श्राद्ध विधि का अनुष्ठान करना चाहिये।