आज मै एक महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करने जा रहा हू जो काफी उपयोगी है,तत्व चिकित्सा(TATVA CHIKITSA) जो प्राचीन पुस्तक से आया है ।
हम रात को सोते है,थकने पर विश्राम करते है---इसका उत्तर देह विज्ञानी या वैद्य यह देते है की, शरीर की एक निश्चित शक्ति होती है और निंद्रा या विश्राम द्वारा हम ह्रास हुई शक्ति को प्राप्त करते है।
अथवा शरीर स्वतः शक्ति का उत्पादन करता रहता है और श्रम करने से शक्ति का ह्रास तीव्र गति से होने से शक्ति छिन्न हो जाती है और हम थकान अनुभव करते तथा विश्राम करके उस ऋणात्मकता को सम या धनात्मक स्थिति मे ले आते है।
तात्विक या तत्त्व-विज्ञान की दृष्टि से-How is powerful Tatva therapy, Why is its important?
तात्विक या तत्त्व-विज्ञान की दृष्टि से इन बातो की हम इस रूप मे भी समझ सकते है कि हमारा शरीर चूँकि पाँचो तत्वों से बना हुआ है और वह तत्वों के स्तर की गतिशीलता का प्रभाव इसपर भी पड़ेगा ही ।
तत्व हो या उनकी सूक्ष्म अवस्था गुन हो,ये गतिशील रहते है क्योकि इनके साथ चेतन तत्व जुड़ा हुआ है हम सक्रिय होते है क्योकि क्रियाशीलता अथवा चंचलता रजोगुन का धर्म है और वही रजोगुण विशुद्ध रूप से वायुतत्व का सूक्ष्म रूप है।
क्रियाशीलता के लिए प्रत्यक्ष शक्ति उष्मा से संभव है और ऊष्मा अग्नि तत्व से प्राप्त होती है तथा अग्नि तत्व में सत्व-रज ये दोनों गुण(विद्धमान)रहते है। इसलिए यह परिणाम निकाल लेना अव्यवहारिक नहीं है की व्यक्ति की क्रियाशीलता, हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका स्पन्दित होने का कारन वायु और अग्नि तत्व है ।
तत्त्वों की इस चक्र गति वायु और अग्नि तत्त्व कि वो रजोगुण अपनी सक्रियता का चक्र पूरा कर लेते है तो जल और पृथ्वी तत्व सक्रिय होते हैं।
जल में तमोगुण आधी मात्रा में और पृथ्वी में पूरी मात्रा में विद्यमान रहता है और निंद्रा क्लान्ति या आलस्य तमोगुण की अभिव्यक्त स्थिति होती है, चलिए हम थक कर सोना, और सोकर काम में लग जाना पसंद करते हैं।
यह प्राकृतिक नियम है, तत्वों की व्यवस्था है और तत्वों का यह उदयास्त अनुलोम प्रतिलोम गति से होता ही रहता है, अर्थात आकाश तत्वों से पृथ्वी तत्व तक फिर पृथ्वी तत्व से आकाश तत्व तक।
आकाश--तत्व की श्रृंखला में प्रथम है
आकाश, तत्व की श्रृंखला में प्रथम है! इसे शुण्यावस्था मे जाना जाता है जिसका आशय यह है कि वह अपने आप में कुछ नहीं है।
पर इसमें चार तत्वों को सृजन करने की योग्यता भी है और उनको अपने में समेट लेने की क्षमता भी है। आयुर्वेद की सन्निपातिक स्थिति इसी आकाश तत्व से समानता रखती है।
गुणात्मक प्रकृति की दृष्टि से आकाश, तत्व गुण प्रधान है पर उसकी विशालता और आकार हीनता उसके सत्व गुण को विशुद्ध सत्व का प्रतीक नहीं बनने दे सकते, इसमें रजोगुण और तमोगुण बीज रूप में विद्यमान रहते हैं ।
आकाश के वास्तविक स्वरूप को चिदा- काश कहा जाता है और चिदाकाश में सत्व गुण प्रकृष्ट सत्व का रूप ग्रहण कर लेता है। इसमें रज तम का स्पर्श भी नहीं रहता।
यही स्थिति माया या शक्ति के विस्तार की सीमा में ही आती है, फिर भी यह सांसारिक नहीं है। इस बिंदु तक पहुंच पाना या आकाश को चिदाकाश के रूप में देख पाना योग की साधना से संभव है।
तत्व चिकित्सा एक संपूर्ण विद्या है-Tatva Chikitsa Ek Sampoorn Vidya Hai
तत्व चिकित्सा एक संपूर्ण विद्या है और शायद किसी भी चिकित्सा विधि से अधिक सरल शुगम और अहानिकर है। रोगों का वर्गीकरण तत्वों की दृष्टि से कर पाने की चेष्टा यहां अप्रासंगिक कम,विस्तारजनक अधिक रहेगी।
फिर भी साधारण परिज्ञान के लिए हम जान ले कि हमारे शरीर में तत्वों का जो अनुपात एवं उनकी तीव्र, मंद अवस्था का क्रम नियम है उसमे गतिरोध उत्पन्न हो जाने से अस्वस्थता होती है।
अतः यदि हम यह जान सके कि किस तत्व से अधिक तीव्रता है या किस तत्व में अनपेक्षित मंदता है तो उसेनियंत्रित कर पाना सरल हो जाएगा यही चिकित्सा मानी जाएगी ।
मान लीजिए किसी व्यक्ति के शरीर में जल तत्व उग्र हो रहा है तो निश्चित है पृथ्वी तत्व पर वह आक्रमण करेगा और पृथ्वी तत्व की क्रियाएं क्षीण हो जायेंगी अथवा जल तत्व यदि आवश्यकता से अधिक मंद पड़ गया है।
तो तेजस्तत्व तत्व में लीन होने की चेष्टा करेगा। जरा सी व्यवस्था बिगड़ने पर डिहाइड्रेशन हो जाता है और तेजस्वतत्व की कमी हो जाने पर मंदाग्नि जैसे बीमारीयाँ हो जाती है।
अतिसार जैसे रोग में पृथ्वी तत्व निर्बल हो जाता है और उनकी चिकित्सा के लिए जो औषधिया दिया दी जाती है वह हम अन्तोगत्वा उन तत्वों को प्रबल या निर्बल करती है।
आशय यह कि किसी भी तत्व का निर्बल या प्रबल होना असंतुलन का प्रतीक है और इस असंतुलन को दूर करने के लिए दोनों ही विधियां निर्मल तत्व को प्रबल करने या उससे अग़ले तत्व को निर्बल कर के मूल तत्व को स्वाभाविक स्थिति में लाने देने की प्रक्रिया काम में लाई जाती है ।
प्राकृतिक चिकित्सा इन्ही अंशों में तत्वों की चिकित्सा से या तत्व सिद्धांत से मेल खाती है। इनमें माध्यम पृथ्वी और जल को बनाया जाता है पृथ्वी तत्व भी गंध गुण के रूप में नहीं है और ना जल रंग या स्वाद के आधार पर है।
यदि प्राकृतिक चिकित्सा वाले तत्वों की इस व्यवस्था को अपना सके तो प्राकृतिक चिकित्सालय सबसे अच्छे चिकित्सा संस्थान बन सकते हैं।
हमारे शरीर के जितने महत्वपूर्ण संस्थान है (पाचन श्वशन यादी) वे सब इन तत्वों के अधिकार क्षेत्र है और यह स्वतंत्र तत्व के संस्थान होकर भी वृक्ष के पंचांगों की तरह एक दूसरे से अनुस्यूत है । जिसे मृत्यु कहा जाता है उसके कारण एवं विधि आज के देह विज्ञान (मेडिकल साइंस) एक ही है।
उदाहरण के रूप में मृत्यु या तो हृदय गति रुकने से होती है या तक्ताणुओ के जमने से यानी मेडिकल साइंस के अनुसार स्वसन और हृदय का स्पंदन ये दो ही जीवन के लक्षण है। किंतु भारतीय विज्ञान जीवन के चिन्ह कुछ अधिक व्यापक रूप से मानता है। योग कि क्रियाओं के जरिए फेफड़ों और ह्रदय इन दोनों संस्थानों की गति रूप देने के बाद भी जीवित रहा जा सकता है
असल में भारतीय दृष्टि से मृत्यु का कारण हृदय है हृदय की क्रिया से संबंधित रक्त प्रवाह एवं श्वसन संस्थान का गति सुन हो जाना नहीं है यह मृत्यु के चिह्न है, आधार एवं कारण नहीं है।
मृत्यु तत्वों की अत्यंतिक निर्बलता अथवा एक किसी तत्व की अत्यंत उग्रता के कारण होती है। यह भी स्पष्ट है कि किसी एक तत्व के अत्यंत तीव्र हो जाने का उससे पीछे के सब तत्वों का तत्वों का क्षीण हो जाना होता है।
और व्यक्ति के शरीर में इन तत्वों का प्रतीक एवं आधारभूत नाभिकीय चक्र क्रमशः विद्यमान रहते हैं और यह स्वचालित हैं? इनको कोई प्रेरणा नहीं देता?
छठा स्थान चित्त का है और सातवा समूचे विस्तार का, इसलिए मृत्यु इन चक्रों मे से किसी एक चक्र की क्रिया के बंद होते ही हो जाती है? तथा एक चक्र के बंद होते ही शेष चक्र अपने आप निष्क्रिय हो जाता है?
यह स्थिति मृत्यु की होती है जिसे जीतकर मृत्युञ्जय कहलाना लाना बड़ा दुष्कर कार्य है । यह प्रश्न जीवन का है और जीवन तृप्ति स्वस्था ही है हां अस्वस्था नहीं है ।
रोग की अस्वाभाविकता को दूर करते ही स्वस्थ रहने की स्वभाविता स्वताः आ जायेगी । स्वस्थ रहने के लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रहती ।
पंचतत्व चिकित्सा-आकाश, वायु, अग्नि,जल,पृथ्वी
Panchatatva Chikitsa Aakaash,Vaayu,Agni,Jal,Prithvee.तत्व चिकित्सा पर विचार करने से पहले हम इन तत्वों का परिचय प्राप्त कर ले। यह दुहराने की जरूरत नहीं कि तत्व पाँच होते हैं किन्तु इस अंगुलियों पर गिने जा सकने वाले तत्वों का विस्तार कितना बड़ा है यह जान लेना जरूरी है। पाँच तत्वों की सूक्ष्म या मूल अवस्था को तन्मात्रा या गुणात्मक स्थिति कहते है।
मान लिया पृथिवी ठोस है। यह उसका दृश्य रूप है और सूक्ष्म रूप गन्ध है किन्तु वह शेष चार तत्वों के गुणों से भी युक्त है।
जैसे :--
पृथिवी यदि एक ही तत्व होती, उसका किन्हीं अन्य तत्वों से कोई सम्बन्ध नहीं होता, ये तत्व एक-दूसरे से बिल्कुल विच्छिन्न रहते तो, एक ही धातु या ठोस वस्तु का एक ही रूप हमारे सामने रहता। विश्व में दिखाई देने वाली यह विविधता हमारे लिये केवल कल्पना की बात रहती, किन्तु इन तत्वों के संयोजन एवं परस्पराश्रयता का ही यह परिणाम है कि विश्व विविध रूप है। एक ही गंण के अनेक रूप है, एक ही शब्द की असंख्य ध्वनियाँ हैं, एक ही जल के अनेक स्वाद है।
तत्वों को चिकित्सा का माध्यम
तत्वों को चिकित्सा का माध्यम बनाते समय रंग और स्वाद को प्रमुखता दी जाती है। किसी व्यक्ति की बीमारी को दूर करने के लिये उन पदार्थों का प्रयोग करना ही तत्व चिकित्सा है जिनके कारण से या जिनके सेवन से मन्द तत्व सवल और उम्र तत्व सामान्य हो जाया करते हैं।
यह विधि केवल जल तत्व से, वायु तत्व से और तैजस्तत्व से भी सम्पन्न की जा सकती है। मान लीजिए पृथिवी तत्व का रंग पीला माना जाता है और तैजस्तत्व का लाल। पृथिवी तत्व की मन्दता में यदि जल को चिकित्सा का माध्यम बनाया जाता है तो पीले रंग की बोजल में पानी रखकर उसे सूर्य के प्रकाश में रखकर प्रयोग में लाया जाता है और यदि इसी के लिये तैजस्तत्व को माध्यम बनाया जाय तो पीले रंग के कांच से सूर्य या बिजली की रोशनी से सेक किया जाता है।